कहानी संग्रह >> मालगुडी की कहानियाँ मालगुडी की कहानियाँआर. के. नारायण
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मालगुडी की कहानियाँ, जिन पर टेलीविजन का सीरियल भी बन चुका है।
Malgudi Ki Kahaniyan - A Hindi version of Malgudi Days by R K Narayan
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
अपने उपन्यास ‘गाइड’ के लिये साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित तथा पद्मविभूषण द्वारा अलंकृत उपन्यासकार आर.के.नारायण विश्वस्तरीय रचनाकार गिने जाते हैं। उनके उपन्यास ‘गाइड’ पर बनी फिल्म में उन्हें लोकप्रियता का एक और आयाम दिया, जिसे आज भी याद किया जाता है।
‘मालगुडी की कहानियां’ आर.के. नारायण की अद्भुत रोचक कहानियां समेटे हुए पुस्तक है। अपने दक्षिण भारत के प्रिय क्षेत्र मैसूर और चेन्नई में उन्होंने आधुनिकता और पारंपरिकता के बीच यहां-वहां ठहरते साधारण चरित्रों को देखा और उन्हें अपने असाधारण कथा-शिल्प के जरिये, अपने चरित्र बना लिये। ‘मालगुडी के दिन’ पर दूरदर्शन ने धारावाहिक बनाया जो दर्शक आज तक नहीं भूले हैं।
दशकों बाद भी ‘मालगुडी के दिन’ कहानियां उतनी ही जीवंत और लोकप्रिय हैं, जितनी पहले कभी नहीं थीं। यही उनकी खूबी है।
‘मालगुडी की कहानियां’ आर.के. नारायण की अद्भुत रोचक कहानियां समेटे हुए पुस्तक है। अपने दक्षिण भारत के प्रिय क्षेत्र मैसूर और चेन्नई में उन्होंने आधुनिकता और पारंपरिकता के बीच यहां-वहां ठहरते साधारण चरित्रों को देखा और उन्हें अपने असाधारण कथा-शिल्प के जरिये, अपने चरित्र बना लिये। ‘मालगुडी के दिन’ पर दूरदर्शन ने धारावाहिक बनाया जो दर्शक आज तक नहीं भूले हैं।
दशकों बाद भी ‘मालगुडी के दिन’ कहानियां उतनी ही जीवंत और लोकप्रिय हैं, जितनी पहले कभी नहीं थीं। यही उनकी खूबी है।
मेरी कहानियाँ
कहानियाँ लिखना लेखक के लिए आसान होता है क्योंकि इसमें ज़्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती। उपन्यास अच्छा हो या बुरा, छापने लायक हो या न हो, इसमें बहुत काम करना पड़ता है। बहुत ज्यादा शब्द लिखने पड़ते हैं, साठ हज़ार से एक लाख तक जो पहली नज़र में बहुत मुश्किल काम लगता है, क्योंकि इतने शब्द लिखने में बहुत लम्बे समय तक इन पर ध्यान जमाये रखना पड़ता है, आजकल के हिसाब से मैं छोटे उपन्यास ही लिखता हूँ, फिर भी एक ही विषय पर महीनों तक काम करते रहना मुझे परेशान करने लगता है। इन दिनों रात-दिन दिमाग में शब्द और वाक्य घूमते रहते हैं, अंतिम जो शब्द लिखे थे, वे और इसके बाद क्या शब्द लिखे जायेंगे, वे सब कानों में लगातार गूँजते रहते हैं, इनके अलावा दूसरी सब आवाजें और खुशबुएँ-बदबुएँ दिमाग़ में घुस ही नहीं पातीं, बाहर से ही वापस चली जाती हैं। जब उपन्यास का पहला खाक़ा बनाना पड़ेगा, शायद तीसरा और चौथा भी बनाना पड़े, जब तक इसमें पूर्णता प्राप्त न की जा सके- असंभव-सा काम है। फिर कहीं वह दिन आता है जब पांडुलिपि का पैकेट बनाकर उसे प्रकाशक या लिटरेरी एजेंट को रवाना किया जा सकता है।
हर उपन्यास पूरा करने के बाद मैं निश्चय करता हूँ कि इसके बाद दूसरा नहीं लिखूँगा- तब मैं एक या दो कहानियाँ लिख डालता हूँ। यही काम मुझे अच्छा लगता है। उपन्यास लिखने में जहाँ बहुत से चरित्रों और घटनाओं की काफी विस्तार से सोच-विचार कर लिखना पड़ता है, वहाँ कहानी लिखने के लिए एक ही चरित्र या घटना काफी होती है, एक मुख्य विचार या क्रिया पर ध्यान केन्द्रित करने से ही अच्छी कहानी बन जाती है।
भारत में कहानी-लेखक के लिए विषयों की कमी नहीं होती। हमारी संस्कृति इतनी विस्तृत है कि उसमें विषयों की भरमार है : हर आदमी दूसरे आदमी से न सिर्फ आर्थिक स्थिति में, बल्कि दृष्टिकोण, आदतों और यहाँ तक कि रोजमर्रा के जीवन-दर्शन में भी एक-दूसरे से अलग है। ऐसे समाज में जीना और रहना, जो मशीन की तरह एक जैसी जिन्दगी नहीं जीता, जिसमें एक रसता नहीं है, बहुत मनोरंजक और उत्तेजक होता है। ऐसी स्थिति में कहानी लेखक के खिड़की से बाहर गर्दन निकालकर झाँकते ही उसे ऐसा कोई चरित्र मिल जायेगा जिस पर वह अच्छी कहानी लिख डालेगा।
कहानी छोटी ही होनी चाहिए, इस पर दुनिया में सभी एकमत हैं, लेकिन उसकी परिभाषा अलग-अलग ढंगों से की जाती है- अखबार के रिपोर्टर की तरह सामान्य विवरण से लेकर साहित्यिक लेखक के गंभीर चित्रण-विश्लेषण तक, जिसमें घटना, चरित्र भाषा, अभिव्यक्ति, लेखक की अपनी विशेष शैली इत्यादि अनेक बातों पर पूरा ध्यान दिया जाता है। अपनी बात करूँ तो मुझे व्यक्ति की परिस्थितियों पर उसके अपने ही चरित्र संकट में कहानी का सामग्री प्राप्त हो जाती है। इस संकलन में दी गई लगभग तीस कहानियों में ज्यादातर व्यक्ति के ऐसे किसी संकट को लिया गया है जिसे या तो वह जीत लेता है या उसी के साथ रहने को मजबूर होता है। कुछ कहानियाँ ऐसी हैं जिनमें व्यक्ति के जीवन या उसकी परिस्थितियों में कोई ऐसा विशेष क्षण दिखाई देता है जिसको पकड़ने से ही कहानी बन जाती है।
मैंने इस संकलन का नाम मालगुड़ी कस्बे पर दिया है, क्योंकि इससे इसे एक भौगोलिक व्यक्तित्व मिल जाता है। लोग अक्सर पूछते हैं :‘लेकिन यह मालगुडी है कहाँ ?’ जवाब में मैं यही कहता हूँ कि यह काल्पनिक नाम है और दुनिया के किसी भी नक्शे में इसे ढूंढा नहीं जा सकता (यद्यपि शिकागो विश्विद्यालय ने एक साहित्यिक एटलस प्रकाशित किया है जिसमें भारत का नक्शा बनाकर उसमें मालगुडी को भी दिखा दिया गया है)। अगर मैं कहूँ कि मालगुडी दक्षिण भारत में एक कस्बा है तो यह भी अधूरी सच्चाई होगी, क्योंकि मालगुडी के लक्षण दुनिया में हर जगह मिल जायेंगे।
मैं न्यूयार्क में भी मालगुडी के लक्षण ढूंढ लेता हूँ : नगर के पश्चिमी भाग में तेईसवीं सड़क जहाँ 1959 के बाद मैं अक्सर कई-कई महीनों तक रहा, जहाँ बस्ती के निशान और लोगों की ज़िन्दगी में कभी कोई फेरबदल नहीं हुआ- सिनेगॉग की सीढ़ियों पर लुढ़कते शराबी, वह दुकान जिस पर हमेशा बड़े-बड़े शब्दों में लिखा रहता है : यहां की हर चीज़ हफ्ते भर में बिक जाती है- हमेशा के लिए पचास फीसदी सेल; यहाँ की नाई की दुकान, डेन्टिस्ट, वकील, मछली पकड़ने वाले हुकों वगैरह का विशेष स्टोर और स्वादिष्ट खाने-पीने के रहने के रेस्तराँ (जहाँ मैं पहली बार गया तो मालिक ने स्वागत करते हुए कहा ‘आप बहुत दिन बाद आये। आजकल आप दूध, चावल वगैरह कहाँ खरीदते हैं ?’ उसने यह भी नहीं सोचा कि मैं न तेईसवीं सड़क का बाशिन्दा हूँ, न अमेरिका का निवासी हूँ।)- यह सब कुछ हमेशा की तरह वैसा नहीं रहता है, इसके स्थायित्व और आपसी मेलभाव में कभी कोई फर्क नहीं पड़ता। और वो चेलसी होटल जहाँ जब मैं कई साल बाद पहुँचा तो मैनेजर ने लपककर मेरा स्वागत किया और ख़ुशी से भरकर गले से ही नहीं लगा लिया, अपने समूचे स्टाफ को बुलाकर (तब तक तो ज़िन्दा रह गये थे) मुझसे मिलवाया, इनमें पहियेवाली कुर्सी पर चलने-फिरने वाला वह पुराना निवासी भी था जिसकी उम्र अब लगभग 116 साल थी, और जब मैं पिछली दफा इस होटल में रहा, तब यह 90 से कुछ ज्यादा ही रहा होगा।
इस तरह मालगुडी एक कल्पना का कस्बा ही है लेकिन यह मेरे उद्देश्यों के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ है। और मुझ पर चाहे जितना दबाव डाला जाए, इसमें मैं ज्यादा सुधार नहीं कर सकता। पिछले दिनों जब लंदन के एक उत्साही टेलीविज़न निर्माता ने मुझसे कहा कि मैं उसे मालगुडी ले जाकर दिखाऊँ और उसके चरित्रों से मिलाऊँ जिससे मुझ पर घंटे-भर का एक अच्छा-सा फीचर तैयार किया जा सके, तो क्षणभर के लिए तो मैं सहम ही गया, और जवाब में इतना भर ही कह सका, ‘माफ करना, आजकल मैं नया उपन्यास लिखने में ज़रा ज़्यादा ही बिज़ी हूँ.......’
‘यह उपन्यास भी मालगुडी पर ही होगा ?’ उसने पूछा।
‘हाँ, और क्या,’ मैं बोला।
‘इसका विषय क्या है ?’
‘इसका विषय है मनुष्य की आत्मा पर शेर का प्रभाव....’
‘वाह, यह तो बहुत रोचक होना चाहिए। मैं तब तक इन्तजार करूंगा। तब जो डाक्युमेंटरी बनेगी, उसमें शेर बहुत मज़ा पैदा कर देगा।’
सितम्बर 1981
हर उपन्यास पूरा करने के बाद मैं निश्चय करता हूँ कि इसके बाद दूसरा नहीं लिखूँगा- तब मैं एक या दो कहानियाँ लिख डालता हूँ। यही काम मुझे अच्छा लगता है। उपन्यास लिखने में जहाँ बहुत से चरित्रों और घटनाओं की काफी विस्तार से सोच-विचार कर लिखना पड़ता है, वहाँ कहानी लिखने के लिए एक ही चरित्र या घटना काफी होती है, एक मुख्य विचार या क्रिया पर ध्यान केन्द्रित करने से ही अच्छी कहानी बन जाती है।
भारत में कहानी-लेखक के लिए विषयों की कमी नहीं होती। हमारी संस्कृति इतनी विस्तृत है कि उसमें विषयों की भरमार है : हर आदमी दूसरे आदमी से न सिर्फ आर्थिक स्थिति में, बल्कि दृष्टिकोण, आदतों और यहाँ तक कि रोजमर्रा के जीवन-दर्शन में भी एक-दूसरे से अलग है। ऐसे समाज में जीना और रहना, जो मशीन की तरह एक जैसी जिन्दगी नहीं जीता, जिसमें एक रसता नहीं है, बहुत मनोरंजक और उत्तेजक होता है। ऐसी स्थिति में कहानी लेखक के खिड़की से बाहर गर्दन निकालकर झाँकते ही उसे ऐसा कोई चरित्र मिल जायेगा जिस पर वह अच्छी कहानी लिख डालेगा।
कहानी छोटी ही होनी चाहिए, इस पर दुनिया में सभी एकमत हैं, लेकिन उसकी परिभाषा अलग-अलग ढंगों से की जाती है- अखबार के रिपोर्टर की तरह सामान्य विवरण से लेकर साहित्यिक लेखक के गंभीर चित्रण-विश्लेषण तक, जिसमें घटना, चरित्र भाषा, अभिव्यक्ति, लेखक की अपनी विशेष शैली इत्यादि अनेक बातों पर पूरा ध्यान दिया जाता है। अपनी बात करूँ तो मुझे व्यक्ति की परिस्थितियों पर उसके अपने ही चरित्र संकट में कहानी का सामग्री प्राप्त हो जाती है। इस संकलन में दी गई लगभग तीस कहानियों में ज्यादातर व्यक्ति के ऐसे किसी संकट को लिया गया है जिसे या तो वह जीत लेता है या उसी के साथ रहने को मजबूर होता है। कुछ कहानियाँ ऐसी हैं जिनमें व्यक्ति के जीवन या उसकी परिस्थितियों में कोई ऐसा विशेष क्षण दिखाई देता है जिसको पकड़ने से ही कहानी बन जाती है।
मैंने इस संकलन का नाम मालगुड़ी कस्बे पर दिया है, क्योंकि इससे इसे एक भौगोलिक व्यक्तित्व मिल जाता है। लोग अक्सर पूछते हैं :‘लेकिन यह मालगुडी है कहाँ ?’ जवाब में मैं यही कहता हूँ कि यह काल्पनिक नाम है और दुनिया के किसी भी नक्शे में इसे ढूंढा नहीं जा सकता (यद्यपि शिकागो विश्विद्यालय ने एक साहित्यिक एटलस प्रकाशित किया है जिसमें भारत का नक्शा बनाकर उसमें मालगुडी को भी दिखा दिया गया है)। अगर मैं कहूँ कि मालगुडी दक्षिण भारत में एक कस्बा है तो यह भी अधूरी सच्चाई होगी, क्योंकि मालगुडी के लक्षण दुनिया में हर जगह मिल जायेंगे।
मैं न्यूयार्क में भी मालगुडी के लक्षण ढूंढ लेता हूँ : नगर के पश्चिमी भाग में तेईसवीं सड़क जहाँ 1959 के बाद मैं अक्सर कई-कई महीनों तक रहा, जहाँ बस्ती के निशान और लोगों की ज़िन्दगी में कभी कोई फेरबदल नहीं हुआ- सिनेगॉग की सीढ़ियों पर लुढ़कते शराबी, वह दुकान जिस पर हमेशा बड़े-बड़े शब्दों में लिखा रहता है : यहां की हर चीज़ हफ्ते भर में बिक जाती है- हमेशा के लिए पचास फीसदी सेल; यहाँ की नाई की दुकान, डेन्टिस्ट, वकील, मछली पकड़ने वाले हुकों वगैरह का विशेष स्टोर और स्वादिष्ट खाने-पीने के रहने के रेस्तराँ (जहाँ मैं पहली बार गया तो मालिक ने स्वागत करते हुए कहा ‘आप बहुत दिन बाद आये। आजकल आप दूध, चावल वगैरह कहाँ खरीदते हैं ?’ उसने यह भी नहीं सोचा कि मैं न तेईसवीं सड़क का बाशिन्दा हूँ, न अमेरिका का निवासी हूँ।)- यह सब कुछ हमेशा की तरह वैसा नहीं रहता है, इसके स्थायित्व और आपसी मेलभाव में कभी कोई फर्क नहीं पड़ता। और वो चेलसी होटल जहाँ जब मैं कई साल बाद पहुँचा तो मैनेजर ने लपककर मेरा स्वागत किया और ख़ुशी से भरकर गले से ही नहीं लगा लिया, अपने समूचे स्टाफ को बुलाकर (तब तक तो ज़िन्दा रह गये थे) मुझसे मिलवाया, इनमें पहियेवाली कुर्सी पर चलने-फिरने वाला वह पुराना निवासी भी था जिसकी उम्र अब लगभग 116 साल थी, और जब मैं पिछली दफा इस होटल में रहा, तब यह 90 से कुछ ज्यादा ही रहा होगा।
इस तरह मालगुडी एक कल्पना का कस्बा ही है लेकिन यह मेरे उद्देश्यों के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हुआ है। और मुझ पर चाहे जितना दबाव डाला जाए, इसमें मैं ज्यादा सुधार नहीं कर सकता। पिछले दिनों जब लंदन के एक उत्साही टेलीविज़न निर्माता ने मुझसे कहा कि मैं उसे मालगुडी ले जाकर दिखाऊँ और उसके चरित्रों से मिलाऊँ जिससे मुझ पर घंटे-भर का एक अच्छा-सा फीचर तैयार किया जा सके, तो क्षणभर के लिए तो मैं सहम ही गया, और जवाब में इतना भर ही कह सका, ‘माफ करना, आजकल मैं नया उपन्यास लिखने में ज़रा ज़्यादा ही बिज़ी हूँ.......’
‘यह उपन्यास भी मालगुडी पर ही होगा ?’ उसने पूछा।
‘हाँ, और क्या,’ मैं बोला।
‘इसका विषय क्या है ?’
‘इसका विषय है मनुष्य की आत्मा पर शेर का प्रभाव....’
‘वाह, यह तो बहुत रोचक होना चाहिए। मैं तब तक इन्तजार करूंगा। तब जो डाक्युमेंटरी बनेगी, उसमें शेर बहुत मज़ा पैदा कर देगा।’
सितम्बर 1981
-आर.के.नारायण
ज्योतिषी का एक दिन
ठीक दोपहर के समय वह अपना थैला खोलता और ज्योतिष की दुकान लगाता : दर्जन भर कौड़ियाँ, कपड़े का चौकोर टुकड़ा जिस पर कई रहस्यमय रेखाएं खिंची थीं, एक नोटबुक ताड़पत्रों की एक किताब। उसके माथे पर बहुत-सी भभूत और थोड़ा-सा सिंदूर लगा होता, और आँखों से एक तिरछी चमक यह देखने के लिए निकलने लगती कि ग्राहक उसकी तरफ आ रहे हैं या नहीं, लेकिन सीधे-सादे लोग इसे दैवी-शक्ति मानकर भरोसे का अनुभव करते। उसकी आँखों की शक्ति, चेहरे पर सबसे ऊपर लगी होने के कारण भी बढ़ जाती- ऊपर माथे पर प्रभावी तिलक और नीचे गालों तक फैली बड़ी काली मूँछों के बीच दमकती दो आँखें : किसी अल्प बुद्धि के लिए भी इस तरह सजी आँखें बड़ी कारगर सिद्ध होतीं। प्रभाव जमाने के लिए वह सिर पर गेरुआ रंग की पगड़ी भी पहनता- यह रंग हमेशा सफलता प्रदान करता था। लोग उसकी तरफ इस तरह आकृष्ट होते, जैसे फूलों पर मक्खियाँ गिरती हैं।
टाउन हॉल के पार्क से लगे रास्ते पर वह इमली की एक विशाल वृक्ष की दूर-दूर तक फैली टहनियों की छाया में विराजमान होता है। यह एक ऐसी जगह थी। जहाँ सवेरे से देर रात तक लोगों की भीड़ गुज़रती रहती। सँकरी लम्बी सड़क पर दोनों तरफ तरह-तरह की छोटी दुकानें लगी होतीं : घरेलूं दवाएं बेचने वाले, चुराए हुए लकड़ी-लोहे के सामान की दुकानें, जादूगर और सस्ते कपड़े की एक दुकान, जिसके लोग ज़ोर-जोर से चिल्लाकर हर वक्त लोगों को बुलाते रहते। इसी के बगल में इसी तरह शोर करने वाली एक मूँगफली विक्रेता, जो हर दिन अपनी चीज़ को एक नया नाम देता, किसी दिन बंबई की आइस्क्रीम, किसी दिन दिल्ली के बादाम, किसी राजा की सौगात, और लोग हर वक्त उससे खरीददारी कर रहे होते।
भीड़ के बहुत सारे लोग ज्योतिषी को भी घेरे रहते। वह बगल में लगी मूँगफलियों के बड़े-से-ढेर के ऊपर धुँआ देती जलनेवाली आग से निकलती हलकी रोशनी से ही अपना काम चलाता। यहाँ म्युनिस्पैलिटी ने कोई रोशनी नहीं मुहैया कराई थी। दुकानों पर लगी छोटी-छोटी रोशनियों से ही सबको काम चलाना पड़ता था। एक-दो के पास गैस के हंड़े भी थे, जिनमें से हर वक्त ‘सूँ’ की आवाज़ निकलती रहती, कुछ दुकानों पर खंभों से रोशनी की नंगी लपट निकलती रहती, कुछ साइकिलों के छोटे-छोटे लैम्पों से काम चलाते, और ज्योतिषी की तरह कुछ अपनी रोशनी के बिना ही दूसरों के भरोसे गुज़ारा कर लेते। तरह-तरह की इन बहुत-सी रोशनियों से एक अलग ही मंजूर बनता, जिनके बीच में चलते-निकलते लोगों की छायाएं अपना रहस्यमय समाँ बाँध देतीं।
ज्योतिषी को यह माहौल इसलिए बहुत सही लगता क्योंकि जब उसने जिन्दगी शुरू की थी तब ज्योतिषी तो बनना ही नहीं चाहता था; दूसरों की ज़िन्दगी में क्या होने वाला है, यह जानना तो दूर, वह यह भी नहीं जानता था कि उसकी अपनी जिन्दगी में अगले मिनट क्या होने वाला है ! तब उसे न तो सितारों की कोई जानकारी थी, न उन बेचारे लोगों की, जो उसके ग्राहक बनते। बातें करने में जो कुशल था, जो लोगों को खूब पसंद आतीं।’ इसलिए अनुमान और अभ्यास से इस काम में उसने अच्छी महारत हासिल कर ली। यह नहीं, दूसरे सभी धंधों की तरह यह धंधा भी उतना ही ईमान का धंधा था, और दिन भर की मेहनत के बाद वह जो भी कमाई शाम को घर ले जाता, वह ईमान की ही कमाई थी।
उसने जब गाँव छोड़ा, तब यह नहीं सोचा था कि क्या करेगा। गाँव में ही रहता तो वही सब काम करता जो पुरखे करते आये थे, यानी खेती का काम, शादी और बच्चे, और पुराने घर में हमेशा की तरह गुज़र-बसर। लेकिन यह नहीं होना था। उसे बिना किसी को बताये घर छोड़ना पड़ा था और आस-पास नहीं, करीब दो सौ मील ज्यादा दूरी थी, दोनों स्थलों के बीच एक समुद्र की तरह।
टाउन हॉल के पार्क से लगे रास्ते पर वह इमली की एक विशाल वृक्ष की दूर-दूर तक फैली टहनियों की छाया में विराजमान होता है। यह एक ऐसी जगह थी। जहाँ सवेरे से देर रात तक लोगों की भीड़ गुज़रती रहती। सँकरी लम्बी सड़क पर दोनों तरफ तरह-तरह की छोटी दुकानें लगी होतीं : घरेलूं दवाएं बेचने वाले, चुराए हुए लकड़ी-लोहे के सामान की दुकानें, जादूगर और सस्ते कपड़े की एक दुकान, जिसके लोग ज़ोर-जोर से चिल्लाकर हर वक्त लोगों को बुलाते रहते। इसी के बगल में इसी तरह शोर करने वाली एक मूँगफली विक्रेता, जो हर दिन अपनी चीज़ को एक नया नाम देता, किसी दिन बंबई की आइस्क्रीम, किसी दिन दिल्ली के बादाम, किसी राजा की सौगात, और लोग हर वक्त उससे खरीददारी कर रहे होते।
भीड़ के बहुत सारे लोग ज्योतिषी को भी घेरे रहते। वह बगल में लगी मूँगफलियों के बड़े-से-ढेर के ऊपर धुँआ देती जलनेवाली आग से निकलती हलकी रोशनी से ही अपना काम चलाता। यहाँ म्युनिस्पैलिटी ने कोई रोशनी नहीं मुहैया कराई थी। दुकानों पर लगी छोटी-छोटी रोशनियों से ही सबको काम चलाना पड़ता था। एक-दो के पास गैस के हंड़े भी थे, जिनमें से हर वक्त ‘सूँ’ की आवाज़ निकलती रहती, कुछ दुकानों पर खंभों से रोशनी की नंगी लपट निकलती रहती, कुछ साइकिलों के छोटे-छोटे लैम्पों से काम चलाते, और ज्योतिषी की तरह कुछ अपनी रोशनी के बिना ही दूसरों के भरोसे गुज़ारा कर लेते। तरह-तरह की इन बहुत-सी रोशनियों से एक अलग ही मंजूर बनता, जिनके बीच में चलते-निकलते लोगों की छायाएं अपना रहस्यमय समाँ बाँध देतीं।
ज्योतिषी को यह माहौल इसलिए बहुत सही लगता क्योंकि जब उसने जिन्दगी शुरू की थी तब ज्योतिषी तो बनना ही नहीं चाहता था; दूसरों की ज़िन्दगी में क्या होने वाला है, यह जानना तो दूर, वह यह भी नहीं जानता था कि उसकी अपनी जिन्दगी में अगले मिनट क्या होने वाला है ! तब उसे न तो सितारों की कोई जानकारी थी, न उन बेचारे लोगों की, जो उसके ग्राहक बनते। बातें करने में जो कुशल था, जो लोगों को खूब पसंद आतीं।’ इसलिए अनुमान और अभ्यास से इस काम में उसने अच्छी महारत हासिल कर ली। यह नहीं, दूसरे सभी धंधों की तरह यह धंधा भी उतना ही ईमान का धंधा था, और दिन भर की मेहनत के बाद वह जो भी कमाई शाम को घर ले जाता, वह ईमान की ही कमाई थी।
उसने जब गाँव छोड़ा, तब यह नहीं सोचा था कि क्या करेगा। गाँव में ही रहता तो वही सब काम करता जो पुरखे करते आये थे, यानी खेती का काम, शादी और बच्चे, और पुराने घर में हमेशा की तरह गुज़र-बसर। लेकिन यह नहीं होना था। उसे बिना किसी को बताये घर छोड़ना पड़ा था और आस-पास नहीं, करीब दो सौ मील ज्यादा दूरी थी, दोनों स्थलों के बीच एक समुद्र की तरह।
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